काशी में करोत कथा की सच्चाई

‘‘काशी में करौंत की स्थापना की कथा’’
शास्त्राविधि त्यागकर मनमाना आचरण करने यानि शास्त्रों में लिखी भक्ति विधि
अनुसार साधना न करने से गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में लिखा है कि उस साधक को न
तो सुख की प्राप्ति होती है, न भक्ति की शक्ति (सिद्धि) प्राप्त होती है, न उसकी गति
(मुक्ति) होती है अर्थात् व्यर्थ प्रयत्न है। हिन्दु धर्म के धर्मगुरू जो साधना साधक समाज को
बताते हैं, वह शास्त्रा प्रमाणित नहीं है। जिस कारण से साधकों को परमात्मा की ओर से कोई
लाभ नहीं मिला जो भक्ति से अपेक्षित किया। फिर धर्मगुरूओं ने एक योजना बनाई कि
भगवान शिव का आदेश हुआ है कि जो काशी नगर में प्राण त्यागेगा, उसके लिए स्वर्ग का
द्वार खुल जाएगा। वह बिना रोक-टोक के स्वर्ग चला जाएगा। जो मगहर नगर (गोरखपुर
के पास उत्तरप्रदेश में) वर्तमान में जिला-संत कबीर नगर (उत्तर प्रदेश) में है, उसमें मरेगा,
वह नरक जाएगा या गधे का शरीर प्राप्त करेगा। गुरूजनों की प्रत्येक आज्ञा का पालन
करना अनुयाईयों का परम धर्म माना गया है। इसलिए हिन्दु लोग अपने-अपने माता-पिता
को आयु के अंतिम समय में काशी (बनारस) शहर में किराए पर मकान लेकर छोड़ने लगे।
यह क्रिया धनी लोग अधिक करते थे। धर्मगुरूओं ने देखा कि जो यजमान काशी में रहने
लगे हैं, उनको अन्य गुरूजन भ्रमित करके अनुयाई बनाने लगे हैं। काशी, गया, हरिद्वार
आदि-आदि धार्मिक स्थलों पर धर्मगुरूओं (ब्राह्मणों) ने अपना-अपना क्षेत्रा बाँट रखा है। यदि
कोई गुरू अन्य गुरू के क्षेत्रा वाले यजमान का क्रियाकर्म कर देता है तो वे झगड़ा कर देते
हैं। मारपीट तक की नौबत आ जाती है। वे कहते हैं कि हमारी तो यही खेती है, हमारा
निर्वाह इसी पर निर्भर है। हमारी सीमा है। इसी कारण से काशी के शास्त्राविरूद्ध साधना
कराने वाले ब्राह्मणों ने अपने यजमानों से कहा कि आप अपने माता-पिता को हमारे घर
रखो। जो खर्च आपका मकान के किराए में तथा खाने-पीने में होता है, वह हमें दक्षिणा रूप में देते रहना। हम इनकी देखरेख करेंगे। इनको कथा भी सुनाया करेंगे। उनके परिवार
वालों को यह सुझाव अति उत्तम लगा और ब्राह्मणों के घर अपने वृद्ध माता-पिता को छोड़ने
लगे और ब्राह्मणों को खर्चे से अधिक दक्षिणा देने लगे। इस प्रकार एक ब्राह्मण के घर प्रारम्भ
में चार या पाँच वृद्ध रहे। अच्छी व्यवस्था देखकर सबने अपने वृद्धों को काशी में गुरूओं के
घर छोड़ दिया। गुरूओं ने लालच में आकर यह आफत अपने गले में डाल तो ली, परंतु
संभालना कठिन हो गया। वहाँ तो दस-दस वृद्ध जमा हो गए। कोई वस्त्रों में पेशाब कर
देता, कोई शौच आँगन में कर देता। यह समस्या काशी के सर्व ब्राह्मणों को थी। तंग आकर
एक षड़यंत्रा रचा। गंगा दरिया के किनारे एकान्त स्थान पर एक नया घाट बनाया। उस पर
एक डाट (।तबी) आकार की गुफा बनाई। उसके बीच के ऊपर वाले भाग में एक लकड़ी
चीरने का आरा यानि करौंत दूर से लंबे रस्सों से संचालित लगाया। उस करौंत को पृथ्वी
के अंदर (न्दकमतहतवनदक) रस्सों से लगभग सौ फुट दूर से मानव चलाते थे। ब्राह्मणों ने
इसी योजना के तहत नया समाचार अपने अनुयाईयों को बताया कि परमात्मा का आदेश
आया है। पवित्रा गंगा दरिया के किनारे एक करौंत परमात्मा का भेजा आता है। जो शीघ्र
स्वर्ग जाना चाहता है, वह करौंत से मुक्ति ले सकता है। उसकी दक्षिणा भी बता दी। वृद्ध
व्यक्ति अपनी जिंदगी से तंग आकर अपने पुत्रों से कह देते कि पुत्रो! एक दिन तो भगवान
के घर जाना ही है, हमारा उद्धार शीघ्र करवा दो। इस प्रकार यह परंपरा जोर पकड़ गई।
बच्चे-बच्चे की जुबान पर यह परमात्मा का चमत्कार चढ़ गया। अपने-अपने वृद्धों को उस
करौंत से कटाकर मुक्ति मान ली। यह धारणा बहुत दृढ़ हो गई। कभी-कभी उस करौंत का
रस्सा अड़ जाता तो उस मरने वाले से कह दिया जाता था कि तेरे लिए प्रभु का आदेश नहीं
आया है। एक सप्ताह बाद फिर से किस्मत आजमाना। इस तरह की घटनाओं से जनता
को और अधिक विश्वास होता चला गया। जिसके नम्बर पर करौंत नहीं आता था, वह दुःखी
होता था। अपनी किस्मत को कोसता था। मेरा पाप कितना अधिक है। मुझे परमात्मा कब
स्वीकार करेगा? वे पाखण्डी उसकी हिम्मत बढ़ाते हुए कहते थे कि चिन्ता न कर, एक-दो
दिन में तेरा दो बार नम्बर लगा देंगे। तब तक रस्सा ठीक कर लेते थे और हत्या का काम
जारी रखते थे। इसको काशी में करौंत लेना कहते थे और गारण्टिड (ळनंतंदजममक=जिम्मेदारी
व विश्वास के साथ) मुक्ति होना मानते थे। स्वर्ग प्राप्ति का सरल तथा जिम्मेदारी के साथ
होना माना जाता था जबकि यह अत्यंत निन्दनीय अपराधिक कार्य था।
इसीलिए वाणी नं. 104 में कहा है कि शास्त्रा अनुकूल भक्ति के बिना कुछ भी लाभ नहीं
होगा चाहे काशी में करौंत से गर्दन भी कटवा लो। कुछ बुद्धिजीवी व्यक्ति विचार किया करते
थे कि स्वर्ग प्राप्ति के लिए तो राजाओं ने राज्य त्यागा। जंगल में जाकर कठिन तपस्या की।
शरीर के नष्ट होने की भी चिंता नहीं की। यदि स्वर्ग प्राप्त करना इतना सरल था तो यह
विधि सत्य युग से ही प्रचलित होती। यह तो सबसे सरल है। सारी आयु कुछ भी करो। वृद्ध
अवस्था में काशी में निवास करो या करौंत से शीघ्र मरो और स्वर्ग में मौज करो। इसलिए
वाणी नं. 104 में कहा है कि इससे भी कई शंकाऐं बनी रहती थी। यह विधि भी संदेह के
घेरे में थी। यदि इतना ही मोक्ष मार्ग है तो गीता जैसे ग्रन्थ में लिखा होता। ऐसी शास्त्राविरूद्ध क्रया से मन के विकार भी समाप्त नहीं होते। विकारी जीव का मोक्ष होना बताना, संदेह
स्पष्ट है।(104)
 वाणी नं. 105 का सरलार्थ :- श्रीलंका का राजा रावण भी हठ करके तप करता था।
उसने अपना सिर धड़ से काटकर दोनों हाथों से नीचे से काटकर भगवान तमगुण शिव को
दस बार चढ़ाया था। फिर भगवान ने उसको दस बार जीवित करके पूछा कि क्या चाहता
है भक्त? रावण ने सिद्धि-धन तथा लंका का राज्य माँगा। वह दे दिया। पूर्ण परमात्मा की
सत्य भक्ति बिना ऐसे जीवन नष्ट हो जाता है। रावण ने सोने (ळवसक) के मकान बना रखे
थे। ऐसो-आराम के सब साधन प्राप्त कर लिये। तेतीस करोड़ देवताओं को अपनी कैद में
डाल रखा था। अहंकार से भरकर अत्याचार करता था। श्री रामचन्द्र की पत्नी सीता का
अपहरण किया। राम तथा रावण का युद्ध हुआ। रावण की युद्ध में मृत्यु हो गई। सब सोना
(कंचन) यहीं छोड़कर चला गया, एक रती (एक ग्राम) स्वर्ण भी साथ लेकर नहीं गया।
इसलिए बताया है कि भक्ति के बिना कुछ लाभ नहीं होता। संसार से तत्वज्ञान के अभाव
से शास्त्राविरूद्ध भक्ति करके भी निराश जाता है। गलत साधनाओं में भटक रहा है। जैसे
रावण ने शास्त्राविरूद्ध तमगुण शिव की भक्ति भी की और शीश भी चढ़ाया, परंतु मोक्ष नहीं
मिला और खाली हाथ संसार से गया।
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